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चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वो कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए |
इस दिल पे लगा के ठेस, जाने वो कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए ||
आनन्द बक्षी की यह ग़ज़ल,1998 में प्रदर्शित फ़िल्म 'दुश्मन' में हमने पहली बार सुनी थी | उस वक़्त आरती शायद इतनी छोटी रही होंगी कि उन्हें इस ग़ज़ल के मायने समझ नहीं आए होंगे | मगर बेरहम कोविड-19 ने उन्हें ज़िंदगी का सबसे बड़ा दुख दिया, उनसे उनकी माँ छीन ली और पलक झपकते हमेशा खिलखिलाने-चहचहाने वाली आरती को इतना मैच्योर बना दिया कि आज यूँ लगता है मानो इस ग़ज़ल का हर शेर उनकी व्यथा बयान करता हो |
नक़्श के अभियान #करो_न_करो_ना के दूसरे चरण के लिए टीकाकरण की अपील समाज से करके एक ज़िम्मेदार नागरिक होने का कर्तव्य तो आरती ने निभा दिया, मगर ज़ालिम कोविड की बेदर्दी का शिकार, अपनी माँ से बिछड़ी बेटी कैमरा के सामने अपना दर्द न बयान कर सकी | जब आरती की मम्मी श्री मती किरण बाला अस्पताल में दाख़िल थीं, तब हर चंद कोशिशों के बावजूद आरती उनके आख़िरी वक़्त में उनके पास न रह सकीं | वॉर्ड के बाहर वो तड़पती रहीं कि किसी तरह माँ के पास पहुँच जाएँ और उनका ख़याल रख सकें, पर स्वास्थ्य कारणों से अस्पताल के स्टाफ़ ने इसकी इजाज़त नहीं दी | यह याद करके उनके आँसू नहीं थमते हैं कि अनगिनत बार वार्ड से उनकी मम्मी ने उन्हें फ़ोन करके बाक़ायदा उनसे मिन्नतें की थीं कि "आरती, मुझे यहाँ से ले जा, वर्ना मैं मर जाउँगी |" पर आरती उस वक़्त इतनी बेबस हो के रह गई थीं कि कुछ न कर सकीं |
एक आह भरी होगी, हमने ना सुनी होगी, जाते-जाते तुमने, आवाज़ तो दी होगी |
हर वक़्त यही है गम, उस वक़्त कहाँ थे हम, कहाँ तुम चले गए ||
टीस तो यह भी उठती है, तकलीफ़ तो यह भी सालती है आरती को कि सिर्फ़ जीते-जी ही नहीं, उनके जाने के बाद भी वो अपनी माँ का हक़ अदा न कर सकीं | उनकी अंतिम क्रियाएँ भी बेदर्द कोविड की वजह से ढंग से न निभा सकीं | ग़ाज़ियाबाद में रहने वाली आरती को न इसकी इजाज़त दी गई कि वो अपनी माँ का पार्थिव शरीर अपने घर ले जा कर वहाँ से विधि-विधान पूर्वक उनका अंतिम संस्कार कर सकें और न ही इतनी मोहलत उन्हें मयस्सर हो सकी कि उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए कम से कम घरवालों को ही बुला लें | माँ के पार्थिव शरीर का आनन-फ़ानन में अंतिम संस्कार करना बेटी की वो मजबूरी बन गई, जिसने उसके दिल पर कभी न भरने वाला एक और ज़ख़्म बना दिया |
हर चीज़ पे अश्कों से, लिक्खा है तुम्हारा नाम, ये रस्ते घर गलियाँ, तुम्हें कर ना सके सलाम|
हाय दिल में रह गई बात, जल्दी से छुड़ा कर हाथ, कहाँ तुम चले गए||
माँ के जाने से आरती की मानो दुनिया ही लुट गई | हालांकि माँ की दी हुई सीख ने ही उन्हें यह हिम्मत दी कि बुरी तरह बिखर चुकी ज़िंदगी के एक-एक टुकड़े को समेट कर दोबारा उसी तरह जीने की पूरी कोशिश कर रही हैं आरती, लेकिन जो नासूर कोविड ने उन्हें दिया है, उस तकलीफ़ की शिद्दत उनके अलावा और किसी के लिए महसूस कर सकना शायद नामुमकिन है |
अब यादों के कांटे, इस दिल में चुभते हैं, ना दर्द ठहरता है, ना आंसू रुकते हैं |
तुम्हें ढूंढ रहा है प्यार, हम कैसे करें इक़रार, के हाँ तुम चले गए ||
सुश्री आरती यादव के दुख की भरपाई कोई शब्द, किसी की सांत्वना कभी नहीं कर सकते | बस हम जो कर सकते हैं, वो यह कि उनकी अपील पर अमल करते हुए, वैक्सीनेट हो कर, एक कोविड रहित स्वस्थ समाज का उपहार आने वाली नस्लों को दें, ताकि फिर कोई, अपने प्रियजनों की अंतिम विदाई पर इतना मजबूर न हो जैसे आरती हुईं |
आरती जी, अपने अथाह दर्द के बावजूद, हमारे अभियान में सहयोग के लिए, आपका बहुत धन्यवाद | हमारी दुआ है कि आप इस दुख को सह कर वैसी सशक्त आरती बन सकें, जैसी आरती को आपकी मम्मी हमेशा देखना चाहती थीं | श्री मती किरण बाला जी को नक़्श की ओर से श्रद्धांजलि |
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