Thursday, November 18, 2021

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : जनाब ज़ैद ख़ान और मोहतरमा क़ैसर जहाँ

 #करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : जनाब ज़ैद ख़ान और मोहतरमा क़ैसर जहाँ 

https://youtube.com/shorts/0NI4p7mGGJo?feature=share

मैं सिर्फ़ अपने नवासे के लिए दिल्ली से अमरोहा आई हूँ| इतना social है मेरा बच्चा कि इसके प्यार ने मुझे इस उम्र में भी travel करने को मजबूर कर दिया| तुम सबको भी इससे सीखना चाहिए कि without being social, one can't be a good humen being. नानी ने प्यार से अपने नवासे की तरफ़ देख कर कहा तो नवासे ने भी लाड से उनके गले में बाँहें डाल दीं और बोला - मैं आपके बिना अपना ख़ास दिन नहीं मनाना चाहता था, इसीलिए आपको तकलीफ़ दी नानी|

कैसा ख़ास दिन, बेटा? नानी ने पूछा|

वो दरअसल कोविड की वजह से पिछले दो साल से मेरी Birthday celebrations lockdowns की भेंट चढ़ गई थीं| इस साल situation is comparatively under control. तो मैं एक grand celebration करने वाला हूँ| पिछले दो साल की सारी कसर पूरी कर लूँगा| और यह grand celebration मेरी प्यारी grand-mom यानी आपके बिना हो ही नहीं सकती| नानी पर प्यार उंडेलते हुए नवासे ने कहा|

प्यार भरी सवालिया नज़रों से नानी ने पूछा - तो क्या इसलिए मुझे बुलाया है? Situation भले ही कुछ control में है, मगर इसके पूरी तरह control में आने तक हम सबको social distancing का ख़्याल रखना ही होगा| वर्ना यह corona नाम का मुआ virus, फिर से अपनी चपेट में ले लेगा हमें|

नवासा ज़रा सा चिढ़ कर बोला - नानी आप पहले तय कर लें कि social होना अच्छा है या social distancing?

Social होना यक़ीनन अच्छे इंसान की निशानी है बेटा, but social distancing is need of the hour. नानी ने समझाया|

उफ़्फ़! एक तो मैं इन ज्ञानियों से बड़ा परेशान हूँ| "एक तरफ़ कहते हैं - दुनिया गोल है| तो दूसरी तरफ़ कहते हैं - हम दुनिया के कोने-कोने में घूम आए हैं|" भाई, अगर दुनिया गोल ही है तो उसके कोने कैसे हो सकते हैं? "एक तरफ़ कहते हैं - प्यार अँधा होता है| तो दूसरी तरफ़ कहते हैं - प्यार में आँखें चार हो गईं|" यार, आँखें चार होने पर तो double दिखना चाहिए न| और अब यह - Be social. But maintain social distancing. क्या पहेली है यह? कोई समझाए ज़रा मुझे| नवासे ने सारे घरवालों पर नज़र डालते हुए नानी की तरफ़ सवाल उछाला| 

नानी उसके नादान सवाल पर ज़रा सा मुस्कुराईं, फिर बोलीं| यह सब कहावतें और मुहावरें हैं बेटा| इनका आपस में एक-दूसरे से कोई connection नहीं है| मगर हाँ, इनमें से हर एक अपनी जगह पूरी तरह relevant है और इसी relevance की वजह से हम इनका इस्तेमाल करते हैं| 

दिल न बहलाएँ नानी, ठोस दलील दें please. इस बार नवासी बोली| मुझे भी जानना है कि बेहद चटक रंग के फल orange को नारंगी क्यों कहते हैं? उसका नाम तो रंगी होना चाहिए, ना-रंगी नहीं| यह भी बताएँ कि जो चीज़ ज़मीन में गाड़ दी गई हो, उसे गाड़ी कहना चाहिए| फिर सरपट दौड़ने वाली को गाड़ी क्यों कहा जाता है? एक सवाल यह भी कि जो दूध पक-पक के ज़्यादा खरा हो जाता है, उसे खोया क्यों कहा जाता है? मेरे सवाल आपको बचकाना लग सकते हैं नानी, पर जवाब तो आपको देना ही होगा, नवासी ने मचल कर कहा तो बाक़ी सबने भी out of curiosity हाँ में हाँ मिलाई|

इस बार नानी की बाक़ायदा हँसी ही छूट गई| बोलीं -

चलती को गाड़ी कहे, खरे दूध को खोया|

रंगी को नारंगी कहे, देख कबीरा रोया|| 

संत कबीर के सवाल अपने style में पूछकर नानी पर impression जमाना चाहती है मेरी प्यारी गुड़िया| जो किताबें तुम आज पढ़ रही हो, वो बरसों पहले मैं भी पढ़ चुकी हूँ| रही बात जवाब की, तो यह तो तुम्हें ख़ुद समझ लेना चाहिए कि इनके जवाब अगर कबीर जैसे महाज्ञानी खोज रहे थे, तो हमारी क्या बिसात? लेकिन अपने सवालों की आड़ में मेरी बात को घुमाओ मत| अगर तुम्हें social distancing शब्द पर objection है तो मैं तुमसे agree करते हुए अपने words वापिस लेती हूँ और कहती हूँ कि covid को नज़र-अंदाज मत करो| यह अभी गया नहीं है| So follow covid appropriate behavior and maintain physical distancing. आख़िरी दो अल्फ़ाज़ नानी ने ख़ासा ज़ोर देकर कहे|

नानी की बात में दम था, मगर नई पीढ़ी कब आसानी से हार मानने वाली थी| लाडले नवासे ने आख़िरी पैंतरा फैंका| बख़ूबी जानता था कि नानी को injection लगवाने से बड़ा डर लगता है| बोला - नानी, सरकार कहती है कि covid से बचने का सबसे असरदार तरीक़ा टीका है| क्या आपने टीका लगवाया?

अब परेशान करने की नानी की बारी थी| बोलीं - हट शरारती बच्चे! यह उम्र क्या मेरी टीका लगाने की है? हाँ, जब नई-नई शादी हुई थी तब ज़रूर हर function में टीका लगाया करती थी| तुम्हारे नाना को भी मेरे माथे पर लगा टीका बेहद पसंद था| अब तो मेरी शादी का टीका तेरी दुल्हन के माथे पर सजाऊँगी|

मैं Jewellary वाले टीके की बात कब कर रहा हूँ नानी? आप शायद समझी नहीं मेरी बात| मैं तो, मैं तो.. 

हड़बड़ाए नवासे की बात बीच में ही काटते हुए नानी बोलीं - अच्छा-अच्छा, समझ गई| मगर मेरे बच्चे, पूजा के बाद लगाया जाने वाला टीका भी घर पर ही लगाना सही है आजकल| मंदिर जाने पर फिर से physical distancing के norms violate होंगे|

अपना सिर पीटते हुए नवासे ने कहा - मुझे लगता है आप मुझसे मेरी social distancing यानी physical distancing वाली बात का बदला ले रही हैं| वर्ना आप इतनी भोली तो नहीं हैं कि यह न समझी हों कि मैं कोविडरोधी टीके यानी covid vaccine की बात कर रहा हूँ|

नानी ने चुटकी लेते हुए कहा - अगर समझ ही गए हो तो एक बात अब गाँठ बाँध लेना कि तुम्हारी नानी को अपनी कही हुई बात पर किसी की बेजा टीका-टिप्पणी पसंद नहीं है| फिर राज़दाराना अंदाज़ में बोलीं - वैसे तुम्हारी जानकारी के लिए बता दूँ, मैं vaccine के दोनों shots यानी टीके की दोनों dose ले चुकी हूँ| 

Wow नानी! आप तो छुपी रुस्तम निकलीं! नवासे ने तारीफ़ की| फिर कुछ रुआँसा होते हुए बोला - आपकी सारी बातें अच्छी हैं, सिवा  इसके कि इस साल भी अपना birthday celebrate न करूँ|

नानी ने मौहब्बत से कहा - अगर function में आने वाले मेहमान दोनों टीके लगवा चुके हों और mask के साथ-साथ social यानी physical distancing का पालन करने को भी तैयार हों तो तुम ज़रूर celebrate करो|

ख़ुशी से उछलते हुए नवासा बोला - आप ही का नवासा हूँ नानी| मैंने ऐसे ही लोगों को invite करने का plan बना रखा है|

तो फिर जा नवासे! जा, जी ले अपनी ज़िंदगी| नानी ने फिरकी लेते हुए कहा तो सारा घर ठहाकों से गूँज उठा|


यह सिर्फ़ किसी एक घर का क़िस्सा नहीं है| यह आज तक़रीबन हर घर की कहानी है| संतोष की बात यह है कि चाहे teenaged grand-children हों या उनके grand और great grand-parents, covid को लेकर almost सब जागरुक हैं| 

जनाब ज़ैद ख़ान को ही ले लीजिए, जो कि एक student हैं और मिज़ाज से बेपरवा और खिलंदड़े भी| लेकिन यह जानते हैं कि कोविड के मद्देनज़र समाज की तरफ़ उनकी क्या ज़िम्मेदारी है| दूसरी तरफ़ मोहतरमा क़ैसर जहाँ, जो अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर चुकी हैं, मगर सामाजिक ज़िम्मेदारी को लेकर ख़ुद भी aware हैं और इस उम्र में भी समाज को aware करने का काम कर रही हैं| ज़ैद ख़ान साहब और क़ैसर जहाँ साहिबा कोविड टीकाकरण की हमारी मुहिम में साथ देने के लिए नक़्श आप दोनों का शुक्रगुज़ार है|


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Tuesday, October 26, 2021

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : श्री आक़िल मलिक

 


 
#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : श्री आक़िल मलिक

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पहले पेट पूजा, फिर काम करो कोई दूजा |

खाली पेट तो कभी किसी को, काम न कोई सूझा ||

बात तो सच है, पर इससे भी बड़ा सच यह है कि पेट-पूजा करने के लिए भी पहले कोई काम तो करना ही पड़ता है| ऐसा काम, जिसके बदले हाथ में कुछ पैसा आए, क्योंकि अगर पैसा पास नहीं होगा तो पेट कैसे भरेगा? पेट अगर भरा होगा तो ही बाज़ुओं में ज़ोर और शरीर में ताक़त होगी| जिसके घर में खाने की तंगी है, परिवार के सदस्यों के पेट ख़ाली हैं, वो सत्यनारायण की कथा करवाने में भी रुचि नहीं लेगा| कहते हैं न - "भूखे भजन न होय गोपाला| ले तेरी कंठी ले तेरी माला||" यानी जब तक आपकी भूख शांत नहीं होती, तब तक आप किसी काम में ध्यान नहीं लगा सकते। यह शाश्वत सत्य है| यहाँ मुझे महात्मा बुद्ध की ज़िंदगी का एक बेहद अहम क़िस्सा याद आ रहा है -

कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ का मन एक वृद्ध, एक बीमार और एक शवयात्रा को देखकर अशांत हो गया। एक दिन वो सारे सुख त्यागकर तपस्या करने निकल पड़े और गया के नज़दीक उरुबिल्व वन में एक बरगद के नीचे बैठकर कठोर साधना करने लगे। वो कंद-मूल खाते और एकांत में बैठकर चिंतन करते। पहले उन्होंने दिन में एक वक़्त का खाना छोड़ा और फिर कई-कई दिन तक भोजन का त्याग करने लगे ताकि साधना की कठोरता बढ़े और आत्मज्ञान की प्राप्ति हो सके। इससे वो बहुत कमज़ोर हो गए। एक दिन जब वो नहाकर नदी से बाहर आ रहे थे तो उनकी शरीर ने जवाब दे दिया। जैसे-तैसे एक पेड़ की शाख़ पकड़कर बाहर आए, लेकिन दो-चार क़दम चलने के बाद गिर गए। बहुत निराश हुए, सोचा कि मैंने बेकार ही शरीर को इतना कष्ट दिया, आत्मज्ञान की प्राप्ति तो हुई नहीं। अगले दिन एक चरवाहे की लड़की सुजाता उनके लिए खाना लाई। सिद्धार्थ ने निःसंकोच भोजन कर सुजाता को धन्यवाद दिया, क्योंकि वे समझ गए थे कि भूखे रहने का आत्मज्ञान की प्राप्ति से कोई लेना-देना नहीं है। इससे सिर्फ दुर्बलता ही आती है। इसके बाद वे फिर से साधना में लग गए और आख़िरकार उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके बाद वे सिद्धार्थ से बुद्ध हो गए। 

तो कहने का मतलब यह कि हम बुद्ध की तरह बुद्धि से काम लें। जो कर रहे हैं, उसे पूरी लगन और मेहनत से करें| ताकि ख़ूब काम करके ढेर सा पैसा कमा सकें और पेट भरने का बेहतर इंतज़ाम कर सकें| भरे पेट से ही जिस्म में जान है और जान है, तो जहान है| पेट चाहे अमीर का हो या ग़रीब का, दो जून रोटी की दरकार रखता ही है| जिनके दिल बड़े हैं, वो अपने साथ-साथ दूसरों का भी पेट भरकर धर्म और ईमान का काम करते हैं| जिनके ऊपर शैतान हावी हो, वो अपने पेट के लिए औरों का पेट काटकर हैवानियत का उदाहरण देते हैं| चाहे अच्छे रास्ते से या बुरे कामों से, चाहे इज़्ज़त के पेशे से या ज़िल्लत के धंधे से, चाहे हुक्मराँ बन कर या भीख माँगकर, हर इंसान पेट भरने के इंतज़ाम की जुस्तजू में लगा है|

लेकिन कोविड-19 और उससे निपटने के लिए लागू किए गए 2 लॉकडाउन्ज़ ने पेट-पूजा और उसके लिए work is worship यानी कर्म ही पूजा है की परिभाषा पर भी सवालिया निशान लगा दिया है| भारत की तक़रीबन 40% आबादी आज भी ऐसी है, जो बेरोज़गारी के कारण रोज़ पानी पीने के लिए रोज़ कुआँ खोदने को मजबूर है| अपना काम करने वाले, दिहाड़ी मज़दूर, छोटे-मोटे काम-धंधों से परिवार चलाने वाले असंगठित क्षेत्र के अनगिनत भारतीय लॉकडाउन्ज़ के दौर में अपनी सीमित आमदनी से भी हाथ धो बैठे| यह वो तबक़ा है जो अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए काम करने को तिलमिला रहा था, मगर उन्हें बाहर निकलकर काम करने की इजाज़त नहीं थी| जब महामारी का तांडव कुछ क़ब्ज़े में आया और सबको अपने रोज़गार पर लौटने की अनुमति मिली, तब तक देश की अर्थव्यवस्था इस बुरी तरह चरमरा चुकी थी कि ढूँढने से भी काम न मिला| मंहगाई अलग मुँह बाए खड़ी है| क़ीमतें आसमान से भी ऊपर जा पहुँची हैं| तो ऐसे में करें, तो क्या करें? 

श्री आक़िल मलिक ख़ुद का काम करने वाले ऐसे ही एक अक़्लमंद हिन्दोस्तानी हैं, जिन्हें यक़ीन है कि फ़िलहाल हमें महामारी से, रोज़गार की तंगी से, चढ़ती क़ीमतों से निजात दिलाने में अगर कोई मददगार साबित हो सकता है तो वो है सिर्फ़ - वैक्सीनेशन| इन्होंने भी लॉकडाउन्ज़ की वजह से रोज़गार की मार बुरी तरह झेली है| तीसरी लहर के ज़िक्र से ही हम सबकी तरह इनकी भी रूह काँप जाती है| हालांकि, यह बख़ूबी जानते हैं कि A hungry belly has no ears. मगर साथ ही यह भी मानते हैं कि इस hunger, इस भूख से बचने के लिए, भूखे पेटों को वैक्सीनेट होने की बात सुननी ही होगी| आक़िल मलिक साहब समाज में जागरुकता फैलाने के लिए नक़्श का साथ देने का बहुत शुक्रिया|


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Thursday, October 21, 2021

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : सुश्री रितु क्वात्रा


 
#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : सुश्री रितु क्वात्रा

https://youtu.be/CItM8Fa6Jrw

यूँ तो मानवता सदा से ही किसी न किसी बीमारी से दो-चार होती रही है, पर बीते 20 बरस में कुछ ऐसे घातक नए संक्रमण हमारी ज़िंदगी में घुसपैठ करने में कामयाब हुए हैं जिन्होंने सारी दुनिया में तहलका मचा दिया| इनमें 2003 का Severe Acute Respiratory Syndrome यानी SARS, 2009 का Influenza Virus with the H1N1 subtype, 2012 का Middle East Respiratory Syndrome यानी MERS, और 2014 का Ebola Virus विशेष उल्लेखनीय हैं| लेकिन इन सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ज़दा करने वाला 2019 का कोरोना वायरस रहा, जिसने एक ही झटके में सारी दुनिया को अपने शिकंजे में जकड़ लिया और जो अब तक हमारे सिरों पर ख़तरा बन कर मंडला रहा है|

कोविड-19 की दो ख़तरनाक लहरें आकर चली गईं| कोई इस बीमारी की चपेट में आ गया, किसी ने अपने प्यारों को खो दिया, कोई रोज़गार से हाथ धो बैठा, कोई post-traumatic stress disorder से जूझने को मजबूर हुआ तो कोई ऐसा भी रहा जो अपने चारों तरफ़ हो रहे कोविड-तांडव से ज़हनी सुकून गँवा कर neuropsychiatric स्थितियों का शिकार हो गया| चिंता, अवसाद, अनिद्रा, तनाव, घबराहट अचानक ही उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गए| ख़ुद भले ही कोविड की मार से बच गए, मगर अपने प्रियजनों की तकलीफ़ की यादें, उन यादों के बुरे सपने आना और दर्दनाक अनुभवों के फ्लैशबैक से निपटना बहुत मुश्किल हो गया उनके लिए| ज़ोरों से दिल धड़कना, पसीना-पसीना हो जाना, कंपकंपी आना, किसी से बात करने को दिल न करना, ख़ुद को एक ख़ोल में समेट लेना, उदास रहना, भूख न लगना, बेतहाशा रोने की ख़्वाहिश, ग़ुस्सा आना, लोगों से बेवजह लड़ना-झगड़ना, नशे का सहारा लेना, यहाँ तक कि कभी-कभी आत्महत्या तक के ख़्याल आना अंजाने ही व्यक्तित्व पर हावी हो गए | 

साथ ही यह भी देखने में आया कि वो लोग, जो कोविड से सीधे बीमार नहीं हुए, मगर इसके कुप्रभावों से ख़ुद को बचा भी नहीं पाए, वो अप्रत्याशित तौर पर समाज के अलग-अलग वर्गों से आते हैं | जैसे आर्थिक रूप से कमज़ोर और बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित लोग असुरक्षा की भावना के तहत इसकी ज़द में आ गए | महिलाएँ स्वभाव से ही जज़्बाती होती हैं, इसलिए यह मुश्किल दौर यहाँ भी उनकी भावनाओं पर हावी हो गया | ज़्यादा पढ़े-लिखे और जागरुक लोग चूँकि कोविड के हर दुष्प्रभाव से बाख़बर रहे तो इसी जागरुकता ने उनके ज़हन पर बुरा असर भी डाला| 21-40 बरस की उम्र का नौजवान तबक़ा, जिनके कंधों पर आने वाले कल को सँवारने की ज़िम्मेदारी है, अपनी ज़िम्मेदारी के अहसास के दबाव में दिमाग़ पर बोझ ले बैठा| स्वास्थ्यकर्मी और फ्रंटलाइन वर्कर्स ने महामारी के दौर में भी बिना थके अपने काम बख़ूबी अंजाम तो दे दिए, मगर अपने चारों तरफ़ फैली अफ़रातफ़री के प्रभाव से ख़ुद के ज़हन को महफ़ूज़ न रख पाए | या फिर सोशल मीडिया पर अति सक्रिय वर्ग, जिन्हें पल-पल मिलने वाली अपडेट ने ही आख़िरकार दिमाग़ पर असर लेने को मजबूर कर दिया| 

जिस तरह कोविड-19 अप्रत्याशित था उसी तरह कोविड से पैदा हुआ stress, anxiety, psychiatric distress, depression वग़ैरह भी दुनिया की एक बड़ी आबादी के लिए अप्रत्याशित ही साबित हुआ| हालांकि कुछ लोगों ने ध्यान, योग और गहरी साँस लेने जैसे विश्राम अभ्यास से तनाव को कम करने की कोशिश की, तो कुछ ने अपनी समस्याओं को दोस्तों और परिवार के साथ साझा कर इससे बाहर निकलने का प्रयास किया| कुछ ने मन:चिकित्सक की मदद ली, तो कुछ अपनी मज़बूत इच्छाशक्ति, अपनी will power के दम पर ख़ुद को बचा पाए| लेकिन ऐसे भी अनगिनत लोग होंगे जो समझ ही नहीं पाए होंगे कि आख़िर उनके जीवन में यह बदलाव हो क्यों रहा है और बस इसी पशोपेश में वो और भी उलझ कर रह गए होंगे| 

सुश्री रितु क्वात्रा भी ऐसे ही लोगों में से हैं, जिन्हें कोविड शारीरिक तौर पर तो बीमार नहीं कर पाया, लेकिन मानसिक तौर पर उनका बड़ा नुक़सान किया| अपने पूरे परिवार को बीमार पा कर वो गहरे डिप्रेशन में चली गई थीं| उस मनःस्थिति से बाहर निकलने और घरवालों की देखभाल करने के क़ाबिल बनाए रखने का श्रेय वो कोविडरोधी टीके को देती हैं और चाहती हैं कि हर व्यक्ति वैक्सीनेट होकर डिप्रेशन-फ्री ज़िंदगी बसर करे| रितु जी आपके संदेश के लिए नक़्श आपका शुक्रगुज़ार है|

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Saturday, October 16, 2021

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : सुश्री इंदु शर्मा


 #करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : सुश्री इंदु शर्मा 

https://youtu.be/WlzN5JV1CO4


जिस वक़्त सारी दुनिया कोविड के क़हर से थर्राई हुई थी, उस वक़्त दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने जी-जान लगाकर कोविड की इस जंग को जीतने के लिए वैक्सीन बनाने का बीड़ा उठाया। हमारे देश के वैज्ञानिक भी प्रयोगशालाओं में रात-दिन एक किए हुए थे। इधर सरकार भी वैक्सीन से जुड़ी हर प्रक्रिया पर नजर रखे हुए थी| 

कोरोना वायरस से जंग की तैयारी में, भारत में बन रही वैक्सीन का जायज़ा लेने के लिए ख़ुद प्रधानमंत्री ने 28 नवम्बर 2020 को देश की तीन प्रयोगशालाओं का दौरा किया| वो सबसे पहले अहमदाबाद पहुँचें, जहाँ उन्होंने जाइडस कैडिला के प्लांट में कंपनी के टीके की समीक्षा की। इसके बाद वो हैदराबाद गए, वहाँ भारत बायोटेक के प्लांट में स्वदेशी कोविड-19 वैक्सीन के बारे में जानकारी ली। भारत बायोटेक की टीम आई.सी.एम.आर. के साथ मिलकर काम कर रही थी| इसके बाद पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट पहुँचे, जहाँ उन्होंने कोविडरोधी वैक्सीन के विकास और निर्माण प्रक्रिया की समीक्षा की और वैक्सीन के लॉन्च के समय, उत्पादन और वितरण व्यवस्था का जायज़ा लिया। जल्द ही कोविड टीके के लिए AstraZeneca, Pfizer और Moderna के नाम सामने आए|

पहली जनवरी 2021 को डी.जी.सी.आई. ने भारत के दो टीकों 'को-वैक्सीन' और 'कोवीशील्ड' को एमरजेंसी अप्रूवल दिया।

इसके बाद सोलह जनवरी वो तारीख़ थी, जिसका इंतज़ार पूरे देश को था| उस दिन पहली बार देश में कोविड टीकाकरण कार्यक्रम की बाक़ायदा शुरुआत हुई और इसके अंतर्गत फ्रंटलाइन वर्कर्स को वैक्सीन लगाई गई। 

टीकाकरण कार्यक्रम का दूसरा चरण दो क़िस्म के लोगों के लिए था| पहले वो, जिनकी उम्र साठ साल से ज़्यादा थी और दूसरे, 45 बरस से अधिक आयु वर्ग के वो लोग जो गंभीर बीमारी यानी को-मोरबिडिटीज़ से प्रभावित थे|

वैक्सीनेशन के तीसरे चरण में एक अप्रैल 2021 से 45 वर्ष से अधिक उम्र के सभी नागरिकों को वैक्सीन लगाने का काम शुरू किया गया। इस बीच टीकाकरण को गति देने के लिए ग्यारह से चौदह अप्रैल 2021 के बीच चार दिन का टीका उत्सव मनाने की घोषणा भी की गई|

टीकाकरण के चौथे चरण में पहली मई 2021 से 18 वर्ष से अधिक आयु वर्ग के युवाओं के लिए टीकाकरण कार्यक्रम की शुरूआत की गई| नतीजतन, 16 जनवरी 2021 से शुरू हुए कोविड टीकाकरण कार्यक्रम ने, सरकारी आँकड़ों के अनुसार 13 सितम्बर 2021 को 75 करोड वैक्सीनेशन डोज़ का लक्ष्य पूरा कर लिया था और अब जल्द ही यह आँकड़ा 100 करोड़ को छूने की तरफ़ तेज़ी से बढ़ रही है| संतोष की बात यह है कि अब भारत में उपयोग के लिए 7 टीकों को मंज़ूरी मिल चुकी है, जिनमें -

Zydus Cadila की ZyCoV-D

Moderna की mRNA-1273

Gamaleya की Sputnik V

Janssen (Johnson & Johnson) की Ad26.COV2.S

Oxford/AstraZeneca की AZD1222

Serum Institute of India की Covishield (Oxford/AstraZeneca formulation) और

Bharat Biotech की Covaxin वैक्सीन्ज़ के नाम शामिल हैं|

वैसे अगर सरकारी आँकड़ों पर यक़ीन करें तो अब देश की क़रीब तीन-चौथाई आबादी वैक्सीनेटिड है| पर यह आंकड़ा महज़ काग़ज़ों में दर्ज एक कीर्तिमान न हो, इसके लिए ज़रूरी है कि कोविड टीकाकरण के इस सफर को तब तक जारी रखा जाए, जब तक समाज के अंतिम छोर पर मौजूद और हाशिए पर पड़ा हर नागरिक वैक्सीनेट न हो जाए | फ़िलहाल कोविड की इस जंग में टीकाकरण ही सबसे बड़ा हथियार दिखाई दे रहा है, जिससे हम कोविड पर फ़तह पा सकते हैं। 

नक़्श की ही तरह, दिल्ली निवासी, 36 वर्षीय, सुश्री इंदु शर्मा का भी यही मानना है कि हर आयुवर्ग के हर देशवासी को कोविडरोधी टीके की दोनों डोज़ लेनी ही होंगी, तभी हम एक कोविड-फ़्री समाज में बेख़ौफ़ जी सकेंगे | इंदु शर्मा जी नक़्श के अभियान #करो_न_करो_ना.. के प्लेटफ़ॉर्म से समाज को कोविड टीके के लिए प्रेरित करने पर आपका आभार|

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Monday, October 11, 2021

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : श्री सुनील गौड़

 

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : श्री सुनील गौड़

https://youtu.be/tXTrauWgM0A

मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि रोज़गार खोने का दुख किसी अपने को खोने के दुख के बराबर ही होता है| साथ ही इंसान रोज़गार जाने के दुख को महसूस करने और उससे निपटने में - सदमा लगना, हालात को स्वीकार न करना, फिर ग़ुस्सा आना और आख़िरकार इसे स्वीकार करके, आगे की उम्मीद से गुज़र सकता है|

कोरोना वायरस फैलने की पहली लहर से लेकर अब तक, लगभग हर हफ़्ते किसी न किसी क्षेत्र से हज़ारों कर्मचारियों को बिना तनख़्वाह छुट्टी देने, नौकरियों से निकालने, वेतन में भारी कटौती की ख़बरें आम बात हो गई है| लॉकडाउन्ज़ के दौर में माल्स, रेस्तरां, बार, होटल सब बंद थे| फ़ैक्ट्रियाँ, कारख़ाने सभी ठप्प पड़े थे| हालांकि अभी इनमें से ज़्यादातर शुरू हो गए हैं, पर रोज़ी-रोज़गार के लिए हालात सामान्य होने में कितना वक़्त लग जाएगा कोई नहीं जानता| संस्थान अब भी लोगों की छँटनी कर रहे हैं और हर कोई इसी डर के साए में जी रहा है कि न जाने कब उसकी नौकरी चली जाए| 

इसके अलावा ख़ुद का रोज़गार चलाने वाले लोग बाज़ार में ग्राहक न होने से परेशान हैं| छोटे-मोटे काम-धंधे करके परिवार चलाने वाले अब भी घर में बैठने को मजबूर हैं| अनगिनत लोगों की आमदनी का कोई ज़रिया नहीं है| ऐसे में इसे अगर "बेरोज़गारी की वैश्विक महामारी" या "संकट के भीतर का संकट" कहा जाए तो ज़्यादा सही होगा|

सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन एकोनॉमी (CMIE) की रिपोर्ट के मुताबिक़ लंबे लॉकडाउन की वजह से मई 2020 में बेरोज़गारी दर का आंकड़ा 27.11 फ़ीसदी तक जा पहुँचा था| और कोविड की दूसरी लहर के क़हर ने तो न सिर्फ़ हज़ारों लोगों की जान ली, बल्कि बीमारी से बचने के उपाय लॉकडाउन ने लाखों की आजीविका भी छीन ली। यानी लॉकडाउन्ज़ ने सीधे तौर पर तो बेरोज़गारी नहीं बढ़ाई, लेकिन इससे भारतीय अर्थव्यवस्था कमज़ोर होकर रह गई और रोज़गार के मौक़े घटते चले गए| कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के कारण देश में एक करोड़ से ज़्यादा लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा, जबकि पिछले साल महामारी की शुरूआत से लेकर अब तक 97 प्रतिशत परिवारों की आय घटी है| 

अब भले ही तक़रीबन सब कुछ अनलॉक हो चुका है, पर हालात अभी सुधरे नहीं हैं| लोग अब भी जद्दो-जहद में हैं| नई नौकरी तलाशने के सिलसिले नए सिरे से जारी हैं| त्योहारों के मौसम में भी ग्राहकों का नदारद होना, कारोबारियों के लिए दर्द-ए-सर बना हुआ है| सवाल यह भी है कि नौकरी जाने या रोज़गार का ज़रिया बंद होने पर अपनी भावनाओं को कैसे संभालें? कैसे नकारात्मक भावनाओं को खुद पर हावी न होने दें? 

लोग नौकरी जाने के लिए ख़ुद के बजाय महामारी को दोषी मान सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा डर यह है कि अगर ख़ुदा-न-ख़ास्ता कोविड की तीसरी लहर आ गई तो संगठनों को लग सकता है कि उनका काम कम लोगों से चल सकता है| टेक्नालॉजी कर्मचारियों की जगह ले लेगी और बची-खुची नौकरियाँ भी दाँव पर लग जाएँगी| दूसरी तरफ़ दुकानदारों और कारोबारियों का डर यह है कि अगर नौकरीपेशा लोगों की जेब ख़ाली हुई तो बाज़ार से सामान कौन ख़रीदेगा, यानी उनका कारोबार ठप्प| और तीसरी तरफ़, छोटे-बड़े सब व्यापारियों और उत्पादकों का डर यह है कि अगर खपत ही नहीं होगी तो वो उत्पादन क्योंकर करेंगे| यानी रोज़गार वो श्रंखला है जिसकी हर कड़ी दूसरी से जुड़ी है| 

लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि ज़िंदगी फिर से पल भर में बदल सकती है| हमें याद रखना चाहिए कि इंतज़ार की घड़ियाँ लंबी भले हों, लेकिन उम्मीद के भरोसे ही हम अपना संतुलन बनाए रख सकते हैं| हमें यह भी याद रखना चाहिए कि आज की सच्चाई को स्वीकार कर ही हम आगे बढ़ सकते हैं, फिर चाहे वह सच्चाई कितनी ही डरावनी क्यों न हो? और याद यह भी रखना चाहिए हमें कि फ़िलहाल 'कोविड' और 'बेरोज़गारी', इन दोनों महामारियों से बचने का जो इकलौता तरीक़ा हमें दिखाई दे रहा है, वो है सिर्फ़ - वैक्सीनेशन

नक़्श की ख़्वाहिश है कि समाज को कोविड की तीसरी लहर व एक और लॉकडाउन का सामना न करना पड़े| नक़्श को उम्मीद है कि बहुत जल्द फिर से बसों और ट्रेनों में बिना डर लोग सफ़र कर सकेंगे, दुकानों और बाज़ारों में फिर से ख़रीददारों की गहमा-गहमी होगी, फ़ैक्ट्रियों में बजने वाले भोंपू इस बात की गवाही देंगे कि एक बार फिर उनमें काम करने वालों की तादाद बढ़ गई है, और औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ आसमान पर ज़रूर यह इबारत रक़म करेगा कि "हाँ, हमने यह जंग जीत ली"| 

सिर्फ़ नक़्श ही नहीं, बल्कि 76, जनपथ, दिल्ली स्थित गोविन्दा इंटरनेशनल के मालिक श्री सुनील गौड़ की भी ये ही इच्छा है, इसीलिए उन्होंने नक़्श के अभियान #करो_न_करो_ना.. के ज़रिए हर ख़ास-ओ-आम से कोविडरोधी टीका लगवाने की अपील की है | सुनील गौड़ जी आपका बहुत धन्यवाद और एक फलते-फूलते कारोबार के लिए शुभकामनाएँ |


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Tuesday, October 5, 2021

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : मोहतरमा कहकशाँ जबी

 

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : मोहतरमा कहकशाँ जबी

https://youtu.be/XhkbIrhKjWQ

किताबों की दुनिया वाक़ई अनोखी होती है | सिर्फ़ जानकारी में ही इज़ाफ़ा नहीं करती बल्कि गाहे-बगाहे हमारा हाथ पकड़ कर बचपन के उन गलियारों की भी सैर करा लाती है, जहाँ तक और किसी ज़रिए रसाई नामुमकिन है | कोरोना को ही देख लो | जब सारी दुनिया में हाहाकार मचा हुआ था कि न जाने यह कौन सा नया वायरस है जिसने मौत को रूबरू ला खड़ा कर दिया है, तब विद्यार्थी जीवन में पढ़ी किताबों ने याद दिलाया कि इस वायरस का नाम हमने तो बचपन में ही पढ़ लिया था | यह और बात है कि तब हमने इसे कोविड के नाम से नहीं, बल्कि मामूली नज़ला-ज़ुकाम-खाँसी के रूप में जाना था, इसीलिए तब इसे रत्ती बराबर भी अहमियत नहीं दी थी | 

वैक्सीन के सिलसिले में भी यही बात लागू होती है | जब से होश संभाला, तब से ये ही पता था कि Meningococcal, Tetanus, Diphtheria, Pertussis, BCG, Influenza, Chickenpox, Hepatitis, Measles, Mumps, Polio, Pneumococcal, Rotavirus, Rubella जैसे तमाम टीके बच्चे की पैदाइश से लेकर किशोरावस्था तक लगा दिए जाते हैं ताकि वो ता-ज़िंदगी इन बीमारियों से महफ़ूज़ रह सके | लेकिन कोविड की वैक्सीन पहले बच्चों नहीं, बड़ों के लिए आई | और पहले बड़ों के लिए आई यही कोविड वैक्सीन फिर से हमें स्कूल में पढ़ी उन किताबों के सफ़र पर ले गई, जहाँ हमने पढ़ा था कि डॉक्टर एडवर्ड जेनर की ईजाद, चेचक का टीका भी, पहले बड़ों को लगाया गया | 

या फिर लॉकडाउन की ही बात कर लें | हमने क्या, हमारी किसी भी पिछली पीढ़ी ने न लॉकडाउन की मार झेली थी और न ही कभी इस निर्मम, ज़ालिम, क्रूर लफ़्ज़ को सुना तक था | पर किताबों पर हमें पूरा भरोसा था | लगा, कि हो न हो, इसका भी ज़िक्र किसी न किसी नाम से हमने बचपन में ज़रूर पढ़ा होगा | और इस बार भी किताबों ने भरोसा टूटने नहीं दिया | स्कूल के दिनों में पढ़ी शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की कविता नज़र से गुज़री | 

हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजरबद्ध न गा पाएँगे|

कनक-तीलियों से टकराकर, पुलकित पंख टूट जाएँगे ||

नीड़ न दो चाहे टहनी का, आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो |

लेकिन पंख दिए हैं, तो आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ||

स्कूल में तो यह कविता महज़ पढ़ने के लिए पढ़ी थी | बड़े होने के बाद इसमें छिपी मासूम, बेज़ुबान पंछियों की उस पीड़ा का अहसास हुआ, जो वो पिंजरे में क़ैद होने पर झेलने को मजबूर होते हैं | लेकिन कोविड के कारण लगे 2 निर्मम लॉकडाउन ने इस कविता को देखने के लिए एक नया नज़रिया दे दिया | अचानक लगे लॉकडाउन से, घर से दूर फँस जाने वालों की व्यथा बिल्कुल वैसी ही लगी जैसी पिंजरे में क़ैद पंछी के दर्द की अक्कासी इस कविता में की गई है | 

चीन के वुहान से शुरू हुए, कोविड-19 का पहला मामला, भारत में 30 जनवरी 2020 को सामने आया था | हालांकि भारत से पहले कई देशों में यह वायरस फैल चुका था, जिसे देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी World Health Organisation ने 31 जनवरी को कोरोना वायरस को अंतरराष्ट्रीय आपदा घोषित किया था। इसके बाद जब दुनिया के अलग-अलग देशों में संक्रमण के मामले बढ़ने लगे तो WHO ने 11 मार्च को इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया। दुनिया के कई देशों की तरह हमारे देश में भी इससे बचने का एक ही रास्ता दिखाई दिया - लॉकडाउन | सरकार ने 22 मार्च को पहले 'जनता कर्फ़्यू' का एलान किया और फिर अगले ही दिन यानी 23 मार्च से 21 दिन का लॉकडाउन घोषित कर दिया, जो बार-बार बढ़ाया जाता रहा | मंशा यह थी कि कोविड संक्रमण को बढ़ने से रोका जा सके | पर जो भी इन लॉकडाउन्ज़ की ज़द में आए, यह सिर्फ़ वो ही जानते हैं कि लॉकडाउन से गुज़रना, कोविड संक्रमण से गुज़रने से कम दुःखदायी नहीं था |

कहकशाँ जबी और उनका परिवार भी उन्हीं बेक़ुसूर मगर लाचार लोगों में शामिल रहे, जो पिंजरे में क़ैद पंछी की तरह अपने घर पहुँचने को फड़फड़ा रहे थे, मगर पिंजरे के दरवाज़े पर लॉकडाउन नाम का ताला लगा था | एक वक़्त आया, जब ई-पास नाम की चाबी से यह ताला खुल भी गया, पर तब यातायात का कोई साधन नहीं था | हालत यह हो गई थी कि पिंजरा खुल जाने के बावजूद, पंख होते हुए भी और सामने खुला आसमान मयस्सर हो जाने पर भी, ये क़ैदी थे, बेबस थे, हर लम्हा उस समाधान को तलाशते थे, जो इन्हें इनकी मंज़िल तक पहुँचा दे |

बीबी कहकशाँ जबी, आपका बहुत शुक्रिया | आपने लॉकडाउन की अपनी आपबीती नक़्श के साथ साझा की | आपका कड़वा तजुर्बा समाज को यह पैग़ाम देता है कि अगर लॉकडाउन जैसी परेशानियों से बचना हो तो कोविड का टीका लगवाकर ख़ुद की और समाज की हिफ़ाज़त कर लें | ताकि पंख होने के बावजूद आकुल उड़ान में विघ्न न पड़ने पाए |

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Thursday, September 30, 2021

#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : सुश्री आरती यादव

 


#करो_न_करो_ना - कोविड वैक्सीनेशन : सुश्री आरती यादव, अपनी माँ की याद में....

https://youtube.com/shorts/RUVt-DQttPU?feature=share


चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वो कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए |

इस दिल पे लगा के ठेस, जाने वो कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए ||

 

आनन्द बक्षी की यह ग़ज़ल,1998 में प्रदर्शित फ़िल्म 'दुश्मन' में हमने पहली बार सुनी थी | उस वक़्त आरती शायद इतनी छोटी रही होंगी कि उन्हें इस ग़ज़ल के मायने समझ नहीं आए होंगे | मगर बेरहम कोविड-19 ने उन्हें ज़िंदगी का सबसे बड़ा दुख दिया, उनसे उनकी माँ छीन ली और पलक झपकते हमेशा खिलखिलाने-चहचहाने वाली आरती को इतना मैच्योर बना दिया कि आज यूँ लगता है मानो इस ग़ज़ल का हर शेर उनकी व्यथा बयान करता हो | 

नक़्श के अभियान #करो_न_करो_ना के दूसरे चरण के लिए टीकाकरण की अपील समाज से करके एक ज़िम्मेदार नागरिक होने का कर्तव्य तो आरती ने निभा दिया, मगर ज़ालिम कोविड की बेदर्दी का शिकार, अपनी माँ से बिछड़ी बेटी कैमरा के सामने अपना दर्द न बयान कर सकी | जब आरती की मम्मी श्री मती किरण बाला अस्पताल में दाख़िल थीं, तब हर चंद कोशिशों के बावजूद आरती उनके आख़िरी वक़्त में उनके पास न रह सकीं | वॉर्ड के बाहर वो तड़पती रहीं कि किसी तरह माँ के पास पहुँच जाएँ और उनका ख़याल रख सकें, पर स्वास्थ्य कारणों से अस्पताल के स्टाफ़ ने इसकी इजाज़त नहीं दी | यह याद करके उनके आँसू नहीं थमते हैं कि अनगिनत बार वार्ड से उनकी मम्मी ने उन्हें फ़ोन करके बाक़ायदा उनसे मिन्नतें की थीं कि "आरती, मुझे यहाँ से ले जा, वर्ना मैं मर जाउँगी |" पर आरती उस वक़्त इतनी बेबस हो के रह गई थीं कि कुछ न कर सकीं |


एक आह भरी होगी, हमने ना सुनी होगी, जाते-जाते तुमने, आवाज़ तो दी होगी |

हर वक़्त यही है गम, उस वक़्त कहाँ थे हम, कहाँ तुम चले गए ||


टीस तो यह भी उठती है, तकलीफ़ तो यह भी सालती है आरती को कि सिर्फ़ जीते-जी ही नहीं, उनके जाने के बाद भी वो अपनी माँ का हक़ अदा न कर सकीं | उनकी अंतिम क्रियाएँ भी बेदर्द कोविड की वजह से ढंग से न निभा सकीं | ग़ाज़ियाबाद में रहने वाली आरती को न इसकी इजाज़त दी गई कि वो अपनी माँ का पार्थिव शरीर अपने घर ले जा कर वहाँ से विधि-विधान पूर्वक उनका अंतिम संस्कार कर सकें और न ही इतनी मोहलत उन्हें मयस्सर हो सकी कि उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए  कम से कम घरवालों को ही बुला लें | माँ के पार्थिव शरीर का आनन-फ़ानन में अंतिम संस्कार करना बेटी की वो मजबूरी बन गई, जिसने उसके दिल पर कभी न भरने वाला एक और ज़ख़्म बना दिया |


हर चीज़ पे अश्कों से, लिक्खा है तुम्हारा नाम, ये रस्ते घर गलियाँ, तुम्हें कर ना सके सलाम|

हाय दिल में रह गई बात, जल्दी से छुड़ा कर हाथ, कहाँ तुम चले गए||


माँ के जाने से आरती की मानो दुनिया ही लुट गई | हालांकि माँ की दी हुई सीख ने ही उन्हें यह हिम्मत दी कि बुरी तरह बिखर चुकी ज़िंदगी के एक-एक टुकड़े को समेट कर दोबारा उसी तरह जीने की पूरी कोशिश कर रही हैं आरती, लेकिन जो नासूर कोविड ने उन्हें दिया है, उस तकलीफ़ की शिद्दत उनके अलावा और किसी के लिए महसूस कर सकना शायद नामुमकिन है |


अब यादों के कांटे, इस दिल में चुभते हैं, ना दर्द ठहरता है, ना आंसू रुकते हैं |

तुम्हें ढूंढ रहा है प्यार, हम कैसे करें इक़रार, के हाँ तुम चले गए ||


सुश्री आरती यादव के दुख की भरपाई कोई शब्द, किसी की सांत्वना कभी नहीं कर सकते | बस हम जो कर सकते हैं, वो यह कि उनकी अपील पर अमल करते हुए, वैक्सीनेट हो कर, एक कोविड रहित स्वस्थ समाज का उपहार आने वाली नस्लों को दें, ताकि फिर कोई, अपने प्रियजनों की अंतिम विदाई पर इतना मजबूर न हो जैसे आरती हुईं |

आरती जी, अपने अथाह दर्द के बावजूद, हमारे अभियान में सहयोग के लिए, आपका बहुत धन्यवाद | हमारी दुआ है कि आप इस दुख को सह कर वैसी सशक्त आरती बन सकें, जैसी आरती को आपकी मम्मी हमेशा देखना चाहती थीं | श्री मती किरण बाला जी को नक़्श की ओर से श्रद्धांजलि |


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