https://youtu.be/tXTrauWgM0A
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि रोज़गार खोने का दुख किसी अपने को खोने के दुख के बराबर ही होता है| साथ ही इंसान रोज़गार जाने के दुख को महसूस करने और उससे निपटने में - सदमा लगना, हालात को स्वीकार न करना, फिर ग़ुस्सा आना और आख़िरकार इसे स्वीकार करके, आगे की उम्मीद से गुज़र सकता है|
कोरोना वायरस फैलने की पहली लहर से लेकर अब तक, लगभग हर हफ़्ते किसी न किसी क्षेत्र से हज़ारों कर्मचारियों को बिना तनख़्वाह छुट्टी देने, नौकरियों से निकालने, वेतन में भारी कटौती की ख़बरें आम बात हो गई है| लॉकडाउन्ज़ के दौर में माल्स, रेस्तरां, बार, होटल सब बंद थे| फ़ैक्ट्रियाँ, कारख़ाने सभी ठप्प पड़े थे| हालांकि अभी इनमें से ज़्यादातर शुरू हो गए हैं, पर रोज़ी-रोज़गार के लिए हालात सामान्य होने में कितना वक़्त लग जाएगा कोई नहीं जानता| संस्थान अब भी लोगों की छँटनी कर रहे हैं और हर कोई इसी डर के साए में जी रहा है कि न जाने कब उसकी नौकरी चली जाए|
इसके अलावा ख़ुद का रोज़गार चलाने वाले लोग बाज़ार में ग्राहक न होने से परेशान हैं| छोटे-मोटे काम-धंधे करके परिवार चलाने वाले अब भी घर में बैठने को मजबूर हैं| अनगिनत लोगों की आमदनी का कोई ज़रिया नहीं है| ऐसे में इसे अगर "बेरोज़गारी की वैश्विक महामारी" या "संकट के भीतर का संकट" कहा जाए तो ज़्यादा सही होगा|
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन एकोनॉमी (CMIE) की रिपोर्ट के मुताबिक़ लंबे लॉकडाउन की वजह से मई 2020 में बेरोज़गारी दर का आंकड़ा 27.11 फ़ीसदी तक जा पहुँचा था| और कोविड की दूसरी लहर के क़हर ने तो न सिर्फ़ हज़ारों लोगों की जान ली, बल्कि बीमारी से बचने के उपाय लॉकडाउन ने लाखों की आजीविका भी छीन ली। यानी लॉकडाउन्ज़ ने सीधे तौर पर तो बेरोज़गारी नहीं बढ़ाई, लेकिन इससे भारतीय अर्थव्यवस्था कमज़ोर होकर रह गई और रोज़गार के मौक़े घटते चले गए| कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के कारण देश में एक करोड़ से ज़्यादा लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा, जबकि पिछले साल महामारी की शुरूआत से लेकर अब तक 97 प्रतिशत परिवारों की आय घटी है|
अब भले ही तक़रीबन सब कुछ अनलॉक हो चुका है, पर हालात अभी सुधरे नहीं हैं| लोग अब भी जद्दो-जहद में हैं| नई नौकरी तलाशने के सिलसिले नए सिरे से जारी हैं| त्योहारों के मौसम में भी ग्राहकों का नदारद होना, कारोबारियों के लिए दर्द-ए-सर बना हुआ है| सवाल यह भी है कि नौकरी जाने या रोज़गार का ज़रिया बंद होने पर अपनी भावनाओं को कैसे संभालें? कैसे नकारात्मक भावनाओं को खुद पर हावी न होने दें?
लोग नौकरी जाने के लिए ख़ुद के बजाय महामारी को दोषी मान सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा डर यह है कि अगर ख़ुदा-न-ख़ास्ता कोविड की तीसरी लहर आ गई तो संगठनों को लग सकता है कि उनका काम कम लोगों से चल सकता है| टेक्नालॉजी कर्मचारियों की जगह ले लेगी और बची-खुची नौकरियाँ भी दाँव पर लग जाएँगी| दूसरी तरफ़ दुकानदारों और कारोबारियों का डर यह है कि अगर नौकरीपेशा लोगों की जेब ख़ाली हुई तो बाज़ार से सामान कौन ख़रीदेगा, यानी उनका कारोबार ठप्प| और तीसरी तरफ़, छोटे-बड़े सब व्यापारियों और उत्पादकों का डर यह है कि अगर खपत ही नहीं होगी तो वो उत्पादन क्योंकर करेंगे| यानी रोज़गार वो श्रंखला है जिसकी हर कड़ी दूसरी से जुड़ी है|
लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि ज़िंदगी फिर से पल भर में बदल सकती है| हमें याद रखना चाहिए कि इंतज़ार की घड़ियाँ लंबी भले हों, लेकिन उम्मीद के भरोसे ही हम अपना संतुलन बनाए रख सकते हैं| हमें यह भी याद रखना चाहिए कि आज की सच्चाई को स्वीकार कर ही हम आगे बढ़ सकते हैं, फिर चाहे वह सच्चाई कितनी ही डरावनी क्यों न हो? और याद यह भी रखना चाहिए हमें कि फ़िलहाल 'कोविड' और 'बेरोज़गारी', इन दोनों महामारियों से बचने का जो इकलौता तरीक़ा हमें दिखाई दे रहा है, वो है सिर्फ़ - वैक्सीनेशन|
नक़्श की ख़्वाहिश है कि समाज को कोविड की तीसरी लहर व एक और लॉकडाउन का सामना न करना पड़े| नक़्श को उम्मीद है कि बहुत जल्द फिर से बसों और ट्रेनों में बिना डर लोग सफ़र कर सकेंगे, दुकानों और बाज़ारों में फिर से ख़रीददारों की गहमा-गहमी होगी, फ़ैक्ट्रियों में बजने वाले भोंपू इस बात की गवाही देंगे कि एक बार फिर उनमें काम करने वालों की तादाद बढ़ गई है, और औद्योगिक इकाइयों की चिमनियों से निकलने वाला धुआँ आसमान पर ज़रूर यह इबारत रक़म करेगा कि "हाँ, हमने यह जंग जीत ली"|
सिर्फ़ नक़्श ही नहीं, बल्कि 76, जनपथ, दिल्ली स्थित गोविन्दा इंटरनेशनल के मालिक श्री सुनील गौड़ की भी ये ही इच्छा है, इसीलिए उन्होंने नक़्श के अभियान #करो_न_करो_ना.. के ज़रिए हर ख़ास-ओ-आम से कोविडरोधी टीका लगवाने की अपील की है | सुनील गौड़ जी आपका बहुत धन्यवाद और एक फलते-फूलते कारोबार के लिए शुभकामनाएँ |
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