Tuesday, May 19, 2020

#करो न (dos), करो ना (donts) - Children : our Present & Future

#करो न (dos), करो ना (donts) - Children : our Present & Future


#करो न (dos), करो ना (donts) - Children : our Present & Future


कोविड-19 की वजह से लागू लॉकडाउन ने बचपन लौटा दिया है क़सम से | कल शाम भी कुछ पुराने दोस्तों के साथ वीडियो-कॉन्फ़्रेंसिंग कर ख़ूब धमाचौकड़ी की | तय यह हुआ कि आज सब दोस्त अपने-अपने बचपन की एक नादानी बाक़ी सबको सुनाएँगे | एक दोस्त ने शुरुआत की -
मैं उन दिनों शायद 6-7 साल की रही होंगी | अपनी नानी के साथ कहीं जा रही थी | चलते-चलते नानी के पैरों पर मेरी नज़र पड़ी तो देखा उनकी चप्पल में रस्सी का एक लंबा सा टुकड़ा उलझ गया है जो नानी के साथ-साथ सड़क पर घिसटता हुआ आगे बढ़ रहा है | मैं अपनी नानी से बेहद प्यार करती थी | लिहाज़ा मुझे यह गवारा न हुआ कि रस्सी का वह गुस्ताख़ टुकड़ा मेरी नानी के पैरों का बंधन बने | कहीं यह नानी के पैरों में उलझ कर उन्हें गिरा न दे.. यह सोचते ही मेरा दिल धक से हो गया और नानी को गिरने से बचाने के लिए मैंने एक भी लम्हा और गँवाए बिना फ़ौरन रस्सी के उस दुष्ट टुकड़े पर अपना नन्हा पैर मज़बूती से रख दिया ताकि नानी के क़दम उस धूर्त की साज़िश से आज़ाद करा सकूँ | मगर यह क्या? इधर मेरा पैर उस टुकड़े पर पड़ा और उधर मेरी बुज़ुर्ग चहेती नानी मुँह के बल सड़क पर चारों ख़ाने चित्त | पास से गुज़र रहे राहगीरों ने लपक कर नानी को उठाया और पूछा कि कैसे गिर गईं ? नानी बेचारी कराहती हुई बोलीं - पता नहीं | पर मुझे तो पता था | नानी की तकलीफ़ देखकर मेरे आँसू निकल आए और मैंने रस्सी के टुकड़े की तरफ़ इशारा करके रोते-रोते ही चिल्लाकर कहा - यही है वह बदतमीज़, जिसने मेरी नानी को गिराया है | मुझे पता था यह ऐसा ही करेगा, इसीलिए मैंने इसको रोकने के लिए इस पर अपना पैर भी रखा | पर इसने फिर भी मेरी नानी को गिरा दिया | इतना कह, मैं दहाड़े मार कर रोने लगी | पर अचानक ही पास खड़ी भीड़ और दर्द से कराहती मेरी नानी सभी ठहाका मार कर हँस पड़े | उन सबकी हँसी की वजह उस दिन तो समझ में नहीं आई थी पर अब वह वजह बख़ूबी पता है | बस एक बात अब तक नहीं समझ पाई कि नानी को गिरने से बचाने की जुगत लगाने वाली, मैं उनसे ज़्यादा प्यार करती थी; या गिरकर चोट खाने के बावजूद मेरी नादानी को हँसी में उड़ा देने वाली नानी को मुझसे ज़्यादा प्यार था ?
दूसरे दोस्त ने बताया -
मेरी उम्र उन दिनों शायद 4-5 साल रही होगी और मेरी बहन की 6-7 साल | हमारा घर तीसरी मंज़िल पर था | हम दोनों के हाथ में, याद नहीं क्या चीज़ थी, जो हमें मम्मी को दिखानी थी | होड़ यह थी कि कौन पहले दिखाए? बहन बड़ी थीं | इसलिए वह मुझसे ज़यादा स्पीड में सीढ़ियाँ चढ़ कर मुझसे आगे निकली जा रही थीं, जबकि उनसे पहले मैं मम्मी के पास पहुँचना चाहता था | जब आख़िरी ज़ीने पर भी वह मुझसे आगे ही दिखीं तो अपनी नादान नन्ही अक़्ल का इस्तेमाल कर मैंने उनकी टाँग पकड़ कर उन्हें रोकना चाहा ताकि मैं उनसे आगे निकलकर मम्मी के पास पहले पहुँच सकूँ | मगर इधर मैंने टाँग पकड़ी और उधर कानों को चीरती हुई बहन की चीख़ मेरा दिल दहला गई | मैंने टाँग छोड़ बहन के चेहरे की तरफ़ देखा तो होश फ़ाख़ता हो गए | बहन का चेहरा ख़ून में लथपथ था और वह आसमान सिर पर उठाए बेतहाशा रो रही थीं | इतने में रोने की आवाज़ सुनकर मम्मी भी वहाँ पहुँच गईं | आनन-फ़ानन में बहन को डॉक्टर के पास ले जाया गया, जिन्होंने बताया कि मैंने जो उनकी टाँग पकड़ कर खींची उससे उनका मुँह इस ज़ोर से सीढ़ी से टकराया कि ऊपर वाला एक दाँत शहीद हो गया | वैसे तो उनके दूध के दाँत टूटकर पक्के दाँत निकलने का दौर चल रहा था और ऊपर की तरफ़ का एक दूध का दाँत पहले ही टूट कर पक्का दाँत निकलने के इंतज़ार में था | पर मेरी नादानी से बहन का जो दाँत टूटा वह दूध का नहीं, पक्का दाँत था | अब तो सारे घर पर फ़िक्र के बादल छा गए | लड़की को सारी ज़िंदगी पोपले मुँह के साथ जीना होगा | कितना अजीब लगेगा | चाँद सा चेहरा, पर बिना दाँत | और भी न जाने क्या-क्या? बहरहाल दाँतों के डॉक्टर ने ही तसल्ली दी कि इंतज़ार करो | यूँ तो तीसरी बार दाँत निकलता नहीं है | पर कौन जाने क़ुदरत कोई करिश्मा ही दिखा दे | और वाक़ई करिश्मा हुआ भी | पर वह नहीं जो आप सब समझ रहे हैं, बल्कि यह कि टूटने वाला एक दूध का और एक पक्का दाँत, जो कि एक दूसरे के पड़ोसी थे, उन दोनों की ख़ाली जगह को पुर करता हुआ बीचों-बीच एक अकेला दाँत कुछ इस तरह बहन के मुँह में उगा कि आकार में ज़रा सा चौड़ा था, पर इतना भी नहीं कि देखने में अखरे | और दोनों तरफ़ के पड़ोसी दाँतों से ज़रा-ज़रा सी दूरी पर था, पर वह दूरी भी इतनी नहीं कि देखने में बुरी लगे | यूँ कुल मिलाकर क़ुदरत ने बड़े ही संतुलन के साथ बहन के चेहरे की ख़ूबसूरती बिगड़ने से बचा ली | आज मेरी बहन भी दो बच्चों की माँ हैं और मैं भी अब दो बच्चों का बाप हो गया हूँ | मगर जब भी इस वाक़ये का ज़िक्र छिड़ता है मेरी बहन यह कहने से नहीं चूकती हैं कि सिर्फ़ मेरी वजह से वह कभी पूरे 32 दाँत की मालिक नहीं बन पाईं | लेकिन मैं आजकल यह सोचता हूँ कि कोविड-19 के इस युग में सिर्फ़ मेरी वजह से ही बहन ख़ुद ही नहीं, उनके दाँत भी सोशल डिस्टेंसिंग मेनटेन किए हुए हैं |
एक और दोस्त ने अपने बचपन का क़िस्सा साझा किया -
मैं क़रीब 6-7 या 8 साल की रही होंगी | घर के दरवाज़े के बाहर वाली दीवार में काफ़ी नीचे की तरफ़ एक गहरी दरार हो गई थी, जिसे भरने पर न हमारे घरवालों ने कोई ध्यान दिया और न ही पड़ोसियों ने | पर हम दोनों घरों के ही बच्चों के लिए वह दरार उत्सुकता और कौतूहल का विषय बन गई | हम सभी उस दरार के अंदर झाँक-झाँक कर मानो अपना खोया ख़ज़ाना ढूँढते रहते थे | एक दिन स्कूल से वापिस आकर घर में घुसती, उससे पहले ही एक बार फिर उस दरार ने मुझे अपनी तरफ़ आकर्षित किया | मैंने उसमें पूरी शिद्दत से झाँका और मैं हैरान रह गई | आज सचमुच उस दरार के अंदर दो ख़ूबसूरत, चमकते हुए मोती दिखाई दिए | मैंने वक़्त ज़ाया न करते हुए फ़ौरन अपनी पतली सी कमज़ोर उंगली दरार में डाल दी ताकि दोनों मोती हासिल कर सकूँ | पर मोती दूर थे और उंगली छोटी | इतने में ही घर का दरवाज़ा खुला और मैंने घबराकर उंगली बाहर निकाल ली | उस वक़्त तो मैं अंदर चली गई, पर उन दो मोतियों का मोह मुझे बार-बार उस दरार तक खींच कर लाता रहा | लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद हर बार ही मैं मोती हासिल करने में नाकाम होती | बताती किसी को नहीं थी कि कहीं मुझे अपने मोती किसी के साथ बाँटने न पड़ जाएँ | एक दिन फिर से सबकी आँख बचाकर मैं मोती-निकाल मिशन में जुटी हुई थी कि पीछे से मम्मी आ गईं | मुझे दरार में कभी उंगली तो कभी झाड़ू के तिनके से कुछ निकालने की कोशिश करते देख पूछ लिया कि मैं क्या कर रही हूँ | रंगे हाथों पकड़ी जाने पर झूठ न बोल सकी | बता दिया कि इस दरार में मेरे दो मोती हैं, वही निकाल रही हूँ | मम्मी हैरान हुईं कि इतनी बारीक सी दरार के अंदर मोती गए कैसे? बोलीं, हट तो ज़रा | मैं भी तो देखूँ | पहले तो काफ़ी देर उन्हें मेरे मोती दिखे नहीं | फिर मेरे बताए अनुसार आख़िरकार जब उनकी नज़र दोनों मोतियों पर पड़ी तो चिल्लाकर मुझे डाँटते हुए बोलीं - चल अंदर | ख़बरदार जो फिर कभी इस दरार के पास फटकी | मरने के काम कर रही है ? मोती नहीं, वे छिपकली के अंडे हैं | वह तो अच्छा है कि छिपकली ने काटा नहीं तेरे | वर्ना हमें तो पता भी न चलता कि क्या हुआ | फिर बिना देरी दरार को सीमेंट से भरकर बंद कर दिया गया | लेकिन कई साल मैंने इस ग़म में गुज़ार दिए कि मम्मी की वजह से मुझे अपने जादुई मोतियों से हाथ धोना पड़ा | जब तक विज्ञान की किताबों में ख़ुद नहीं पढ़ लिया कि छिपकली अंडे देती है और ये अंडे ख़ूबसूरत मोती जैसे दिखते हैं, तब तक मम्मी मेरी क़ुसूरवार ही रहीं |
एक और दोस्त बोला - 
मैं अपनी नहीं, अपने पापा के बचपन की शरारत बताता हूँ जो मैंने पापा से, दादा-दादी से और कई बड़ों से अनेक बार सुनी है और हर बार उसका बड़ा ही लुत्फ़ लिया है | मेरे पापा बचपन में बेहद शरारती थे | शरारतों का आलम यह था कि पूरा इलाक़ा उन्हें नाम से जानता था | जिधर से गुज़रते कोई शरारत ज़रूर करते | यह वाक़या शायद 50 के दशक का होगा | पापा तब 8-10 साल के रहे होंगे | वे पुरानी दिल्ली के बाड़ा हिन्दू राव में रहते थे | उन दिनों उस इलाक़े में भेड़-बकरियाँ बहुत घूमती थीं | एक दिन शरारत में एक भेड़ की पीठ पर चढ़ बैठे | पापा की तरह भेड़ का भी अपनी तरह का यह पहला अनुभव था | भेड़ एकदम घबरा गई और बौखलाहट में उसने जिधर जगह देखी, दौड़ लगा दी | अब घबराने की बारी पापा की थी | भले ही शरारती थे, पर थे तो बच्चे ही | कहीं भेड़ अपनी पीठ पर से गिरा न दे, इस डर से उन्होंने भेड़ के बालों को मज़बूती से अपनी मुट्ठियों में जकड़ लिया | अब भेड़ और ज़्यादा घबराई, और पहले से ज़्यादा तेज़ दौड़ने लगी | उसकी तेज़ दौड़ से डरकर पापा ने और जो़र से उसके बाल पकड़े | इससे भेड़ और तेज़ी से दौड़ी | और डर का यह सिलसिला पापा और भेड़ दोनों में स्पीड पकड़ता चला गया | इधर भेड़ और पापा की जान पर बनी थी और उधर सड़क पर मौजूद लोग तमाशबीन बन मज़े ले रहे थे | बिदकी हुई भेड़ की पीठ पर पापा की सहमी हुई सवारी ने बग़ीची अच्छा जी से ईश्लरी प्रसाद तक के कई राउंड लगाए | सड़क के दोनों किनारे खड़े लोग इस नायाब मंज़र को देख हँस-हँसकर लोटपोट होते रहे, पर किसी को यह ख़्याल न आया कि इस तमाशे को रोका जाए | आख़िरकार कुछ पापा ने हिम्मत दिखाई और कुछ भेड़ भी थक-थका गई, तब कहीं पापा और भेड़ का मैराथन पूरा हुआ | भेड़ का तो पता नहीं, उसके बाद क्या हुआ? पर पापा कभी नहीं बदले | कम उम्र में यह दुनिया छोड़ गए थे | मगर उनकी शरारतें कभी कम नहीं हुईं | उन जैसा शरारती न हममें से कोई है, न ही हमने कहीं और देखा | बचपन को उन्होंने आख़िरी साँस तक जिया और भरपूर जिया |
बाक़ी दोस्तों ने भी अपने-अपने बचपन की कारस्तानियाँ बयान कीं | किसी और पोस्ट में इसी प्लेटफ़ॉर्म पर वे यब भी ज़रूर आपसे साझा की जाएँगी | लेकिन इस पोस्ट को पढ़कर आपको भी अपने बचपन का कोई कारनामा याद आ गया हो तो नीचे कमेंट बॉक्स में ज़रूर लिखिएगा | फ़िलहाल तो मेरे ज़हन में यह चल रहा है कि अब से 10-20 बरस बाद अगर हमारी ही तरह दोस्तों के किसी ग्रुप ने इकट्ठा होकर अपने बचपन के क़िस्से दोहराए तो सारी दुनिया के दोस्तों के पास एक क़िस्सा कॉमन होगा | कोविड-19 की वजह से लॉकडाउन का क़िस्सा, जिसे आज दुनिया के हर कोने में हर बच्चा झेलने को मजबूर है | छिनते बचपन की इसी मजबूरी ने शायद इन मासूम बच्चों को इतना समझदार बना दिया है कि हालात की नज़ाकत को समझते हुए ये हम बड़ों से भी सावधानियाँ बरतने की अपील कर रहे हैं | अब यह हमारा फ़र्ज़ है कि इनकी अपील पर अमल करके इन्हें एक सुरक्षित दुनिया दें |
Thank you dear children for your message through #Karo na, karo naa.. Love you all. 

*Kids in the video - [Ahmad Jamil, Haniya Hasan, Amish Riaz, Ayesha Parvez, Krisha, Maryam Jamil, Aayat Ali, Arham Ali, Arka Rai, Arsh Parvez & Barirah Hasan].

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