Monday, January 27, 2020

We, the People of Republic India

We, the people of India..



We, the people of India.. This is how our Preamble gets start with. The hopes and aspirations of the people are described in it. It can be referred to as the preface which highlights the entire Constitution. The preamble is based on the Objectives which was drafted and moved in the Constituent Assembly by Jawaharlal Nehru on 13th December 1946. It was adopted on 26th November 1949 by the Constituent Assembly and came into effect on 26th January 1950. This marked the transition for India into a completely Independent Republic. 

But why it is held on 26th January only? Very valid question.

26th January is significant for India not just because it is celebrated as a Republic Day. Lahore Congress convened on 31st December, 1929 of the Indian National Congress (INC) accepted "Poorn Swaraj" as the goal of the freedom struggle and decided to celebrate January 26 every year as Independence Day. Since 26th January 1930, that day was celebrated by INC as the Independence Day of India every year till 1947 when India got its complete and official Independence on 15th August, 1947. India however decided to retain this date as the day India turned a Constitutional Republic. Thus January 26 becomes our Republic Day. 
But now January 26 has one more significant or rather a more historical event in its kitty in the current year i.e. 2020. This year Republic Day was not been celebrated only on Rajpath in New Delhi but in Mumbai and in many more states all over India with a different flavour. A flavour of protest, a flavour of Satyagrah, a flavour of patriotism, a flavour of peace, a flavour of ahimsa, a flavour of Independence, a flavour of REPUBLIC, a flavour of  hopes and aspirations of the people, by mentioning and registering again.. 
We, the people of India..





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Saturday, January 25, 2020

मुझे भी जीने दो ..


मुझे भी जीने दो ..

                मैंने एक बहुत हसीन ख़्वाब देखा था | माँ, मुझे गोद में लेकर लोरी सुनाएँगी | पिता, उंगली पकड़ कर चलना सिखाएँगे | नानी परियों की कहानियाँ सुनाएँगी, तो दादा अपने कंधों पर बिठाकर ख़ुद अपनी परी होने का एहसास मुझे दिलाएँगे | बहन से लाड लड़ाऊँगी, और भाई से ख़ूब लड़कर फिर मान जाऊँगी | बड़ी होकर ख़ूब नाम कमाऊँगी और सारी दुनिया की ख़ुशियों को जी भरकर जिऊँगी | मगर.. 
           सारे ख़्वाब, सारी हसरतें, सारी तमन्नाएँ, सारी ख़्वाहिशें दम तोड़ गए | दुनिया की रोशनी देखने से पहले ही माँ की कोख के सुरमई धुंधलके से, मौत के अंधेरे कुएँ में धकेल दिया गया मुझे | अभी तो मेरे शरीर ने पूरा आकार भी न लिया था कि मेरी साँसें मुझसे छीन ली गईं | बड़ी बेदर्दी से मेरी हत्या कर दी गई और किसी को कानों-कान इसकी भनक तक न लगी | ख़ुद मेरे ख़ामोश लबों में यह सवाल सिसकियाँ ले रहा है कि कौन है मेरा हत्यारा ? समाज को हज़ारों बरस से पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिलती आ रही पितृसत्तात्मक गली-सड़ी सोच या मेरे वो ही अपने, जिनके संग जीवन जीने के सतरंगी सपने संजोए थे ? पर जवाब नहीं है | कहीं नहीं है | बस कहीं अधूरी, अनकही हसरत बाक़ी है कि काश ! कोई तो मुझे मरने से बचा लेता |


                                 लड़की को भी पैदा होने का हक़ है..

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Thursday, January 9, 2020

अब सर्दी भीगी-भागी सी..

अब सर्दी भीगी-भागी सी.. 

विकास मार्ग, दिल्ली : 8 जनवरी, सुबह 5.15 बजे 

पूरा दिसंबर रूखा-सूखा गुज़रने के बाद आख़िरकार जनवरी अपने साथ बारिश की सौग़ात ले ही आई | हैरान करने के साथ फ़िक्रमंद भी कर रखा था मौसम ने कि बारिश न हुई तो रबी की फ़सल का क्या होगा? किसानों पर एक और बोझ बढ़ जाएगा | अनाज आयात करना पड़ेगा और पहले से ही बुरी तरह आर्थिक मंदी झेल रहे भारत की कमर और ज़्यादा टूट जाएगी | अनचाही और बिन बुलाई बीमारियाँ अनुकूल वातावरण बनने के कारण मौक़ा पा जाएँगी और स्वास्थ्य के स्तर पर भी समाज को कमज़ोर कर डालेंगी आदि-आदि | लेकिन न जाने किस ग़रीब की सदा काम आ गई और जनवरी के पहले हफ़्ते में हल्की बूँदा-बाँदी के बाद अंततः 7 जनवरी की पूरी रात ख़ूब जम कर बारिश पड़ी जिसका विस्तार 8 जनवरी की सुबह और अगले दिन भी बाक़ी रहा |

संसद मार्ग, नई दिल्ली

एक तरफ़ जहाँ इस बारिश ने कई चिंताएँ धो डालीं, वहीं दूसरी तरफ़ लोगों को घरों में दुबकने और जिस्म को और ज़्यादा कपड़ों में छिपाने को भी प्रेरित किया | हालांकि प्रेरणा का सबब तो इसके उलट भी कुछ चीज़ें बनीं और मौसम के ये कड़े तेवर कमज़ोर दिखने वालों को असल योद्धा सिद्ध कर गए | साबित हो गया कि धुआँधार बारिश की मार नाज़ुक पत्तियों को दरख़्त से जुदा कर उन्हें ज़मीन पर गिरा तो सकती है पर उस जज़्बे का कुछ नहीं बिगाड़ सकती जो ज़मीन पर गिर कर भी एक तरफ़ राहगीरों के लिए ग्रीन कारपेट बिछा कर उनका स्वागत करता है तो दूसरी तरफ़ उनकी जगह नई पत्तियाँ फिर से उग कर दरख़्त को हरा-भरा रखने में अपना योगदान भी देती हैं और मानवता के लिए एक के बाद एक, नए-नए ग्रीन कारपेट्स का इंतज़ाम भी करती हैं | 


यह अलामत है इस बात की कि सिलसिला क़ायम रहेगा |

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Monday, January 6, 2020

ब्रेल ! तुम कब आओगे ?


ब्रेल ! तुम कब आओगे ?

लुई ब्रेल.. जिनका जन्म  4 जनवरी, 1809 को फ्रांस की राजधानी पेरिस से 40 किमी दूर कूपर गांव में और निधन 6 जनवरी 1852 को मात्र 43 वर्ष की आयु में हुआ, दृष्टिबाधितों की अंधेरी दुनिया में ब्रेल लिपि नामक ऐसी रोशनी बिखेर गए जिसके लिए दुनिया सदा उनकी आभारी रहेगी | 
चार भाई-बहनों में सबसे छोटे लुई ब्रेल की आंख खेल-खेल में जख्मी हो गयी, जिससे एक आंख की रोशनी हमेशा के लिए जाती रही | फिर उस आंख में हुए संक्रमण की वजह से कुछ दिनों बाद उन्हें दूसरी आंख से भी दिखना बंद हो गया और यूँ लुई पूरी तरह दृष्टिहीन हो गये | बचपन के शुरूआती सात साल ऐसे ही गुजरे | जब 10 साल के हुए, तो पिता ने उन्हें पेरिस के रॉयल नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड चिल्ड्रन में भर्ती करा दिया | लुई ब्रेल ने यहां इतिहास, भूगोल और गणित की पढ़ाई की | पर उस स्कूल में जिस लिपि से पढ़ाई होती थी वह लिपि अधूरी थी | एक दिन फ्रांसीसी सेना के एक कैप्टन एक प्रशिक्षण के सिलसिले में लुई के स्कूल आए और उन्होंने सैनिकों द्वारा अंधेरे में पढ़ी जाने वाली नाइट राइटिंग या सोनोग्राफी लिपि के बारे में बताया | यह लिपि कागज पर अक्षरों को उभारकर बनायी जाती थी और इसमें 12 बिंदुओं को 6-6 की दो पंक्तियों में रखा जाता था | लेकिन इसमें संख्‍या, विराम चिह्न, गणितीय चिह्न आदि का अभाव था | प्रखर बुद्धि लुई ने इसी लिपि के आधार पर 12 के बजाय केवल 6 बिंदुओं का इस्तेमाल कर 64 अक्षर और चिह्न बनाये जिसमें विराम चिह्न व गणितीय चिह्न के अलावा संगीत के नोटेशन भी लिखे जा सकते थे | लुई ने जब यह लिपि बनायी तब उनकी उम्र महज़ 15 बरस थी | बाद में लुई ब्रेल उसी स्कूल में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए | गणित, भूगोल, व्याकरण जैसे विषयों में उन्हें महारत हासिल थी | लुई उत्कृष्ट पियानोवादक भी थे | 1824 में लुई ब्रेल की बनाई यह लिपि "ब्रेल लिपि" कहलाई जो आज दुनिया के लगभग सभी देशों में इस्तेमाल की जाती है | उनकी मृत्यु के 16 साल बाद सन 1868 में रॉयल इंस्टिट्‍यूट फॉर ब्लाइंड यूथ ने इस लिपि को मान्यता दी | उनकी 100वीं पुण्यतिथि पर सन 1952 में दुनियाभर के अखबारों में उन पर लेख छपे, डाक टिकट जारी हुए और उनके घर को संग्रहालय का दर्जा दिया गया |  इस‍ लिपि में पाठ्‍युपस्तकें, पुस्तकें और ग्रंथ तो छपते ही हैं, टैक्टाइल मानचित्र, रेखाचित्र भी उपलब्ध हैं और अब तो समय जानने के लिए ब्रेल घड़ियाँ भी बन गई हैं | 

(लुई ब्रेल की द्विशताब्दी जयंती पर जारी एक सिक्का)

हमारे देश में भी ब्रेल लिपि मान्यता प्राप्त है जो दृष्टिबाधितों के लिए अच्छी खबर है | अब इंतज़ार है तो बस उस अच्छी ख़बर का, जो 6x6 रोशनी वाले दृष्टिहीनों की ज़िंदगी में भी रोशनी का संचार कर सके | फिर से एक ऐसे लुई ब्रेल के आगमन का, जो नफ़रत व साम्प्रदायिकता के अंधेरों में घिरे असामाजिक तत्वों के लिए एक नई ब्रेल लिपि विकसित करें ताकि इन जैसे प्राणियों को एक सभ्य और प्रेममय समाज में जीने के लिए प्रेरणा और मदद मिल सके | जो देख नहीं सकते उनके लिए तो ब्रेल लिपि विकसित कर दी, पर जो देखने की क्षमता रखते हुए भी देख नहीं पा रहे हैं, उनके उत्थान के लिए एक नई ब्रेल लिपि लेकर  "लुई ब्रेल! तुम कब आओगे?" |

A Homage to Louis Braille

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Sunday, January 5, 2020

घास



बस्ती वीरानों पर यकसाँ फैल रही है घास |
उससे पूछा क्यों उदास हो, कुछ तो होगा खास ||

कहाँ गए सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास |
घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास ||

सारी दुनिया को था जिनके कब्ज़े का अहसास |
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास ||

धरती पानी की जाई सूरज की खासमखास |
फिर भी क़दमों तले बिछी कुछ कहती है यह घास ||

धरती भर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास |
घास से पहले, घास यहाँ थी, बाद में होगी घास ||

नरेश सक्सेना रचित यह कविता बरबस ही याद हो आई,जब अचानक एक रोज़ जमनापार स्थित सीलमपुर और शास्त्री पार्क  के बीच एक लैंडफ़िल साइट के पास से गुज़र हुआ | 




यहाँ कूड़े का आलम यह है कि इसने एक छोटी-मोटी पहाड़ी का रूप धारण कर लिया है | और क़ुदरत का करिश्मा यह है कि इस पहाड़ी के ऊपर घास का बसेरा हो गया है | इंसानी ज़िंदगी से इसका मिलान किया जाए तो इस पहाड़ी की चोटी तक पर उग आई घास सनद है उस अटल सत्य की कि मग़रूर और सनकी लोग जिन कमज़ोरों को घास के तिनकों के समान तुच्छ समझकर क़दमों तले रौंद डालने की हिमाक़त करते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि वक़्त गुज़रने के साथ उनका वजूद तो मिट्टी में मिल जाएगा; पर उसी मिट्टी पर बड़ी शान से यह मामूली घास उनके सिरों पर इस तरह उग आएगी कि उनकी कोई पहचान तक बाक़ी न रहेगी | 

इसी सिलसिले में  यहाँ एक और कविता का उल्लेख भी प्रासंगिक है | अवतार सिंह संधू  'पाश' की यह कविता कहती है -

मैं घास हूँ,
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा |

बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर,
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर,
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर,

मेरा क्‍या करोगे,
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा |

बंगे को ढेर कर दो,
संगरूर मिटा डालो,
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला,
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...
दो साल... दस साल बाद,
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी,
यह कौन-सी जगह है?
मुझे बरनाला उतार देना |
जहाँ हरे घास का जंगल है..

मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा |
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा ||


दुआ है कि बिन ख़श्बू का किसी निरर्थक फूल बनने से बेहतर है कि दुनिया का हर होशमंद बाशिंदा घास बने |जिसे कोई भी ताना-शाह ख़त्म न कर सके और ख़ुद अपने ख़ात्मे के बाद इस मामूली घास को अपने वजूद पर उग आने से न रोक पाए| 


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Wednesday, January 1, 2020

2020

Twenty20 या 2020 या 20:20 ?


Twenty20 क्या? क्रिकेट या नया साल या फिर समानुपातिक? यह सवाल सुबह से हमारे ज़हन को झकझोर रहा था और अब यक़ीनन यह आपके दिमाग़ में भी घंटियाँ बजा रहा होगा | जहाँ तक बात है Twenty20 क्रिकेट की तो सभी क्रिकेट प्रेमी इस बात से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं कि T20 क्रिकेट का वह रूप है जिसमें दो टीमों के बीच अधिकतम 20 ओवर का मुक़ाबला होता है और सिर्फ़ एक ही पारी का खेल होता है | जहाँ पहले एक दिवसीय मुुक़ाबले में लगभग पूरा दिन लग जाता था वहीं अब इसका फ़ैसला महज़ चंद घंटों में ही हो जाता है | शायद इसीलिए इतने कम समय में यह बेहद मक़बूल हो गया है | 
पर अगर बात करें साल 2020 की तो यह आज से शुरू होने वाला नया अंग्रेज़ी साल है | ख़ास बात बस इतनी सी है कि लीप वर्ष होने के कारण इस बार इसमें 366 दिन होंगे | वर्ना तो इस साल भी बीते सालों की तरह राजनीतिक उथल-पुथल, जातीय हिंसा, धार्मिक वैमनस्य, साम्प्रदायिक दंगे, भ्रष्टाचार, शोषण, उत्पीड़न, यौन हिंसा जैसे अपराधों में कोई कमी आने के आसार दिखाई तो नहीं दे रहे हैं | यानी 2019 और 2020 में केवल 19-20 का ही फ़र्क़ होगा | फिर किस ख़ुशी में Happy New Year जैसे निरर्थक जुमले बोल कर ख़ुद को और दूसरों को झूठे दिलासे दिए जाएँ? 
लेकिन जब तक ज़िंदगी है, उम्मीद का दामन छोड़ना अक़्लमंदी नहीं | साल 2020 का आग़ाज़ आज दिल्ली में सूरज निकलने के साथ हुआ है | 20 दिन लंबी शीतलहर से 2020 के पहले दिन यानी आज ही राहत मिली |  21वीं सदी को आज ही 20वाँ साल लगा है | और T20 की मक़बूलियत आज ही ज़हन में आई है, जिसने यह इशारा किया है कि जिस तरह 2003 में Twenty20, क्रिकेट की दुनिया में एक सकारात्मक बदलाव ले कर आया था; उसी तरह साल 2020 भी हमारे जीवन में वह सकारात्मक बदलाव ला सकता है जिसके लिए आज इंसानियत तरस रही है | घृणा की शीतलहर, आपसी सौहार्द और भाईचारे की तपिश से अपनी मौत ख़ुद मर सकती है | 20 का युवा वर्ष 2019 के बूढ़े, बीमार साल पर विजय प्राप्त कर सकता है | और 366 दिन की सिर्फ़ एक साल की पारी में नफ़रत vs मौहब्बत के इस मुक़ाबले में समान अनुपात में 20:20 ओवर्ज़ का यह गेम sportsman spirit के साथ अगले मैच की तरफ़ सरबुलंद होकर आगे क़दम बढ़ा सकता है |



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