Sunday, January 5, 2020

घास



बस्ती वीरानों पर यकसाँ फैल रही है घास |
उससे पूछा क्यों उदास हो, कुछ तो होगा खास ||

कहाँ गए सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास |
घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास ||

सारी दुनिया को था जिनके कब्ज़े का अहसास |
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास ||

धरती पानी की जाई सूरज की खासमखास |
फिर भी क़दमों तले बिछी कुछ कहती है यह घास ||

धरती भर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास |
घास से पहले, घास यहाँ थी, बाद में होगी घास ||

नरेश सक्सेना रचित यह कविता बरबस ही याद हो आई,जब अचानक एक रोज़ जमनापार स्थित सीलमपुर और शास्त्री पार्क  के बीच एक लैंडफ़िल साइट के पास से गुज़र हुआ | 




यहाँ कूड़े का आलम यह है कि इसने एक छोटी-मोटी पहाड़ी का रूप धारण कर लिया है | और क़ुदरत का करिश्मा यह है कि इस पहाड़ी के ऊपर घास का बसेरा हो गया है | इंसानी ज़िंदगी से इसका मिलान किया जाए तो इस पहाड़ी की चोटी तक पर उग आई घास सनद है उस अटल सत्य की कि मग़रूर और सनकी लोग जिन कमज़ोरों को घास के तिनकों के समान तुच्छ समझकर क़दमों तले रौंद डालने की हिमाक़त करते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि वक़्त गुज़रने के साथ उनका वजूद तो मिट्टी में मिल जाएगा; पर उसी मिट्टी पर बड़ी शान से यह मामूली घास उनके सिरों पर इस तरह उग आएगी कि उनकी कोई पहचान तक बाक़ी न रहेगी | 

इसी सिलसिले में  यहाँ एक और कविता का उल्लेख भी प्रासंगिक है | अवतार सिंह संधू  'पाश' की यह कविता कहती है -

मैं घास हूँ,
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा |

बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर,
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर,
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर,

मेरा क्‍या करोगे,
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा |

बंगे को ढेर कर दो,
संगरूर मिटा डालो,
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला,
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...
दो साल... दस साल बाद,
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी,
यह कौन-सी जगह है?
मुझे बरनाला उतार देना |
जहाँ हरे घास का जंगल है..

मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा |
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा ||


दुआ है कि बिन ख़श्बू का किसी निरर्थक फूल बनने से बेहतर है कि दुनिया का हर होशमंद बाशिंदा घास बने |जिसे कोई भी ताना-शाह ख़त्म न कर सके और ख़ुद अपने ख़ात्मे के बाद इस मामूली घास को अपने वजूद पर उग आने से न रोक पाए| 


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